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अभु॑त्स्यु॒ प्र दे॒व्या सा॒कं वा॒चाहम॒श्विनो॑: । व्या॑वर्दे॒व्या म॒तिं वि रा॒तिं मर्त्ये॑भ्यः ॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

abhutsy u pra devyā sākaṁ vācāham aśvinoḥ | vy āvar devy ā matiṁ vi rātim martyebhyaḥ ||

पद पाठ

अभु॑त्सि । ऊँ॒ इति॑ । प्र । दे॒व्या । सा॒कम् । वा॒चा । अ॒हम् । अ॒श्विनोः॑ । वि । आ॒वः॒ । दे॒वि॒ । आ । म॒तिम् । वि । रा॒तिम् । मर्त्ये॑भ्यः ॥ ८.९.१६

ऋग्वेद » मण्डल:8» सूक्त:9» मन्त्र:16 | अष्टक:5» अध्याय:8» वर्ग:33» मन्त्र:1 | मण्डल:8» अनुवाक:2» मन्त्र:16


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शिव शंकर शर्मा

राजकर्त्तव्य कहते हैं।

पदार्थान्वयभाषाः - हे परमात्मन् ! (अहम्) मैं (अश्विनोः) राजा और अमात्यादिकों की कृपा से अर्थात् राज्य के सुप्रबन्ध के कारण (देव्या) दीप्यमान अत्युत्तम (वाचा) स्तुतिरूप वाणी के साथ ही (प्र+अभुत्सि) प्रतिदिन उठता हूँ। (देवि) हे उषा देवि ! आप मनुष्यों के लिये (मतिम्) कल्याणी बुद्धि (व्यावः) प्रकाशित कीजिये तथा (मर्त्येभ्यः) मनुष्यों के लिये (रातिम्) धन को भी (वि+आवः) प्रकाशित कीजिये ॥१६॥
भावार्थभाषाः - जो कोई प्रातःकाल उठकर परमात्मा की स्तुति करता है, उसकी बुद्धि विमला होती है और बुद्धि प्राप्त होने पर विविध ऐहिक और पारलौकिक धन वह उपासक प्राप्त करता है ॥१६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्) हम याज्ञिक (आश्विनोः) सेनाध्यक्ष सभाध्यक्ष की (देव्या, वाचा, साकम्) दिव्य स्तुति के साथ (प्राभुत्सि) प्रबुद्ध हो गये (देवि) हे उषादेवि ! आप (मतिम्) मेरे ज्ञान को (आ, व्यावः) सम्यक् प्रकाशित करें और (मनुष्येभ्यः) सब मनुष्यों के लिये (रातिम्) दातव्य पदार्थों को (व्यावः) प्रादुर्भूत करें ॥१६॥
भावार्थभाषाः - इस मन्त्र का भाव यह है कि प्रातः उषाकाल में उठ कर दिव्य ज्योतिः की स्तुति में प्रवृत्त याज्ञिक पुरुष प्रार्थना करते हैं कि हे परमात्मन् ! हमारी पढ़ी हुई विद्या प्रकाशित हो अर्थात् फलप्रद हो जिससे हम सब पदार्थ उपलब्ध कर सकें ॥१६॥
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शिव शंकर शर्मा

राजकर्त्तव्यमाह।

पदार्थान्वयभाषाः - अश्विनोः=राजामात्यादीनां कृपया। अहमुपासकः। देव्या=दीप्यमानया। वाचा=स्तोत्ररूपया सह। उ=निश्चयेन। प्र+अभुत्सि=प्रबुद्धोऽस्मि=ईश्वरोपासनायै जागरितोऽस्मि। हे देवि ! त्वमपि सर्वेभ्यो मनुष्येभ्यः। मतिम्=कल्याणीं बुद्धिम्। व्यावः=प्रकाशय। आवः इति वृणोतेः। पुनः। मर्त्येभ्यो=मनुष्येभ्यः। रातिम्=दानं धनञ्च। व्यावः=प्रकाशय ॥१६॥
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आर्यमुनि

पदार्थान्वयभाषाः - (अहम्) अहं याज्ञिकः (अश्विनोः) सेनाध्यक्षसभाध्यक्षयोः (देव्या, वाचा, साकम्) दिव्यस्तुत्या सह (प्राभुत्सि) प्रबुद्धः (देवि) हे उषो देवि ! (मतिम्) मज्ज्ञानम् (आ, व्यावः) सम्यक् प्रकाशय (मर्त्येभ्यः) मनुष्येभ्यः (रातिम्) धनम् (व्यावः) आविर्भावय ॥१६॥